वाह !! ज़नाब क्या ?जमाने के दस्तूर बदल गये ,
तेज चलने वालों से आगे आलसी निकल गए ।
माद्दा नहीं था जिनमे अपने घर तक जा सकें ,
आज वो मिजाज-ए -पुर्शी को सियाचिन निकल गए ।
जो देते रहे नसीहत उम्र भर जमाने को ,
जब देखी खनक हनक-ए- हुश्न वो भी मचल गये ।
बेदाग था दामन जिनका रुसवा हो गये जमाने में ,
बदनाम-ए-जमाना शख्स पहले ही सम्भल गये ।
'कमलेश'क्या बदला है जमाने ने अपना रंग ,
जिनको जाना था 'कल'वो आज ही निकल गए ॥
1 comments:
सुन्दर रचना!
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मंगलवार के साप्ताहिक काव्य मंच पर इसकी चर्चा लगा दी है!
http://charchamanch.blogspot.com/
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