हो समय प्रतिकूल तब वक्त भी ठहर जाता है ,
वक्त[सत्ता]के सम्मुख जन-तन्त्र बे-बस नजर आता है ,
मन में तमन्ना रखते हैं जमाने को बदलने की ,
पर ये जान देने का ही रास्ता नजर आता है ,
कैसी मिलेगा इंसाफ इस सड़ी व्यवस्था से ,
यहाँ हर मोड़ पर भ्रष्टाचार का गटर नजर आता है ,
भ्रष्टाचार से भ्रष्टाचार का फलता-फूलता ये म्हातंत्र,
इस जहाँ से उस जहाँ तक विस्तार नजर आता है ।
इक कोशिस करके देखो ,ज़रूर मेरे यारों ,
क्यूंकि 'बापू 'का इसमें मूल मन्त्र नजर आता है ।
हो ना हो भड़केगी चिंगारी इन सोये दिलों में भी,
ऐसे ज़ज्बे का जोश ,हममे कभी-कभार नजर आता है ।
कोई नेता ,नौकर- शाह क्यों चाहे इस जन-लोकपाल को ,
इसमें भ्रष्टों को भ्रष्टाचार पर ,अत्याचार नजर आता है ।
कमलेश',अभी तो काली अँधेरी रात है नजर आती ,
पर उस तरफ वक्त के, खुशियों का त्यौहार नजर आता है ॥
6 comments:
हो समय प्रतिकूल तब वक्त भी ठहर जाता है ,
वक्त[सत्ता]के सम्मुख जन-तन्त्र बे-बस नजर आता है ,
-फिल वक्त तो हालात ऐसे ही है...जल्द बदलेगा.
बढ़िया रचना.
कोई नेता ,नौकर- शाह क्यों चाहे इस जन-लोकपाल को ,
इसमें भ्रष्टों को भ्रष्टाचार पर ,अत्याचार नजर आता है ।
समसामयिक रचना
आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी।
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पितृ-दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
उस तरफ नजर आने वाला खुशनुमा माहौल जल्दी ही हकीकत में नजर आये ...
आशा विश्वास की ये पंक्तियाँ ही मनोबल बनाये रखती हैं !
कैसी मिलेगा इंसाफ इस सड़ी व्यवस्था से ,
यहाँ हर मोड़ पर भ्रष्टाचार का गटर नजर आता है ..
बहुत उम्दा गज़ल ... लाजवाब आघात है व्यवस्था पर ...
gandhi ji ne deshwasiyon me ek bar nidarta ka mantr fooka tha...ho sake to aaj usi ko aajmaaya jaye.
sunder sashakt prastuti.
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