कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
इन्सान हो गये पत्थर के ,जिन्दगी कंक्रीट हो गयी ।
अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए ,
इन पत्थरों के आंसूओं को, ये आदत हो गयी ।
ढूंढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।
''कमलेश''खुशफहमी में ,जीते है बस्ती के लोग ,
औरों के गम-खुशियों से , इनको जैसे अदावत हो गयी ॥
9 comments:
कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
और अब शायद इसकी भी आदत होती जा रही है
ढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।
-बेहतरीन!! वाह, कमलेश भाई.
ढूंढे से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।
बहुत बढिया!!
अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए
bilkul sahi kaha sehar me log aksar aisa hi karte hai...
सच कहा ..इंसानियत कहीं खोती जा रही है...अच्छी रचना .
सच्चाई को शब्द दे दिए आपने ।
कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
इन्सान हो गये पत्थर के ,जिन्दगी कंक्रीट हो गयी ।
आप पत्थरों को जगाने की अच्छी कोशिस कर रहे हैं।
बहुत सुन्दर!
चर्चा में लगा दिया है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_09.html
ढूंढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।
sundar panktiyan hain !
एक टिप्पणी भेजें