गुरुवार, 8 अप्रैल 2010 | By: कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹

कंक्रीट के जंगलों में...!!!

कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
इन्सान हो गये पत्थर के ,जिन्दगी कंक्रीट हो गयी

अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए ,
इन पत्थरों के आंसूओं को, ये आदत हो गयी

ढूंढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी

''कमलेश''खुशफहमी में ,जीते है बस्ती के लोग ,
औरों के गम-खुशियों से , इनको जैसे अदावत हो गयी

9 comments:

M VERMA ने कहा…

कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
और अब शायद इसकी भी आदत होती जा रही है

Udan Tashtari ने कहा…

ढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।

-बेहतरीन!! वाह, कमलेश भाई.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

ढूंढे से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।

बहुत बढिया!!

संजय भास्‍कर ने कहा…

अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए
bilkul sahi kaha sehar me log aksar aisa hi karte hai...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सच कहा ..इंसानियत कहीं खोती जा रही है...अच्छी रचना .

Unknown ने कहा…

सच्चाई को शब्द दे दिए आपने ।

Unknown ने कहा…

कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
इन्सान हो गये पत्थर के ,जिन्दगी कंक्रीट हो गयी ।



आप पत्थरों को जगाने की अच्छी कोशिस कर रहे हैं।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर!
चर्चा में लगा दिया है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_09.html

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

ढूंढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।

sundar panktiyan hain !