रिश्तों पर अविश्वास का बादल क्यों घना ,
ये थोड़े दिनों से या बहुत पहले बना है ,
सोचो में इतना संकुचन कैसे हो रहा है ,
या खुद खो रहे या विश्वास खो रहा है ,
क्या सामाजिक मूल्यों का अब वजूद नही है ,
दायित्वों के परिपालन के बावजूद नही है ,
कैसे समाज की संरचना बदल रही है ,
हर नवागंतुक ,विहाग को मचल रही है ,
शायद जो 'कमलेश 'हम सोच रहे हैं मन में ,
वह होना होता है सब के इस जीवन में ॥
3 comments:
बहुत बढ़िया...
शायद जो 'कमलेश 'हम सोच रहे हैं मन में ,
वह होना होता है सब के इस जीवन में ॥
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बहुत सार्थक रचना रची है आपने!
बढिया रचना।बधाई।
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