पंखुड़ी लरज गई . !
पंखुड़ी लरज गयी ,
पड़ी ओस की बूँद ,
सकुच कर फ़िर कली बन गयी ,,।
कब तक शर्माती ,इस ज़माने से ,
रात बीती ,फ़िर सुबह ,खिल कर तन गई ।,
पहले डरती थी ,औरों से ,
अब ख़ुद इठलाती भवरों से ।
चल गया पता ,कब खिलना है ।
किस किस , से कब मिलना है ।
पर वक्त का था ,क्या पता ,,
टूट गई डाली ,जहाँ टूटना था पत्ता ।
सुंदर ,सुघर ,सलोने सपने ,
न हो सके उसके अपने ,,
जीवन चक्र का सही यही संदेश ,
नही मिलना था ,नही मिलता है !''कमलेश ''।।
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1 comments:
थोड़ा वर्तनी पर ध्यान दें.
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