मुश्किलों से निकला बचपन ,कल छोड़ ,वर्तमान का नही था पता ,..रिश्तों ने दिए सहारा
जीवन बेल को निखारा ...
समझौते किये अहसानों के बदले ॥?
क्यूँकर मंजिल पानी थी ....
कितनी बार हारी हिम्मत ...पर फिर हिम्मत ने सम्भाला ....
मंजिल मिली कुछ अच्छे सच्चे रिश्तों से ....फिर न मुड कर देखा उस ...
पीछे छूटे पथ को .......!!!
बढ़ता चला गया /कुनबे का सफर, अगले पड़ाव की और..
आज जहाँ खड़े हैं ,...सब गर्व से ...
क्योंकि नही देना,.... उन्हें कर्ज़ अहसानों का ,
अहसानों का कर्ज़ /फर्ज़ , कुर्बानियों का लम्बा दौर ,
शायद मुक्कमल हो गया ...
इक नई, किरन करती है इशारा ... 'कमलेश'
नई राह की ओर......उस ओर ..उस ओर ..........
2 comments:
बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति ।
बहुत सुन्दर!
बधाई हो!
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