शनिवार, 13 फ़रवरी 2010 | By: कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹

सरूर ....!!!

हुई सुबह तो उनकी आँखों में इक सरूर था ,
आँखों की लाली
थी कह रही थी ,कुछ हुआ जरूर था

उलझी हुई लटों में, कुछ प्रश्न भी थे अनसुलझे ,
लटें ही सुलझी ? कुछ प्रश्न और भी उलझे
उल्टा प्रश्न आँखों ने किया जरूर था ........

तन की उमंग मन की तरंग होठों पर थी आयी ,
गले का हार होठों का श्रृंगार थी किसी ने बिखराई
गला कुछ बता पाने को मजबूर था ......

तेरी उल्फत ने मेरे दिल को तडपा दिया ,
तड़फते दिल ने फिर भी तेरा सिजदा किया
उसने पलट कर एक बार देखा जरूर था ........

हाय! कैसे समझाते ज़ालिम जमाने को अपनी दशा ,
''कमलेश'' जिसको समझता रहा ये साकी का नशा
वो तो चमक मेरी चाहत का नूर था .......

3 comments:

Udan Tashtari ने कहा…

तेरी उल्फत ने मेरे दिल को तडफा दिया ,
तड़फते दिल ने फिर भी तेरा सिजदा किया ।
उसने पलट कर एक बार देखा जरूर था ....

वाह वर्मा जी, क्या बात है..शानदार अभिव्यक्ति!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

तेरी उल्फत ने मेरे दिल को तडफा दिया ,
तड़फते दिल ने फिर भी तेरा सिजदा किया ।
उसने पलट कर एक बार देखा जरूर था .......



क्या कहूँ इन पंक्तियों के बारे में..... यह पंक्तियाँ दिल के गहराई में उतर गयीं हैं....


बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है आपने......

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।