शनिवार, 20 फ़रवरी 2010 | By: कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹

जो जीते थे मेरे लिये वो...!!!

जो जीते थे मेरे लिये वो ,अजनबी कैसे हो गये ,
बड़ी जतन से संजोये रिश्ते ,ये कैसे ऐसे हो गये

आवाज आयी टूटने की , लगा कुछ है गिरा,
फिर ये दिलों के टुकड़े तार-तार कैसे हो गये

शिकवों की सिसकियाँ थी ,सुनी शायद किसी ने ,
उन छलकती आँखों के आंसू ,इतने बे-जार कैसे हो गये

कुछ तो है दिलों में इक दूसरे के ,जो जीने नही देता ,
अब जीने-मरने के जाने ये इकरार कैसे .ऐसे हो गये

जालिम कह कर वो भी वैसे हो गये,की हमें क्या ?,
''कमलेश '' कातिल थे वो फरिश्ते कैसे -ऐसे हो गये

4 comments:

श्यामल सुमन ने कहा…

जो जीते थे मेरे लिये वो ,अजनबी कैसे हो गये ,
बड़ी जतन से संजोये रिश्ते ,ये कैसे ऐसे हो गये ।

सुन्दर भाव कमलेश भाई। कभी लिखा था कि-

अपना कहकर जिसे सम्भाला मेरी हालत पे हँसते
ऊपर से हँस भी लेता पर दर्द हृदय में सहता हूँ

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

श्यामल सुमन ने कहा…

जो जीते थे मेरे लिये वो ,अजनबी कैसे हो गये ,
बड़ी जतन से संजोये रिश्ते ,ये कैसे ऐसे हो गये ।

सुन्दर भाव कमलेश भाई। कभी लिखा था कि-

अपना कहकर जिसे सम्भाला मेरी हालत पे हँसते
ऊपर से हँस भी लेता पर दर्द हृदय में सहता हूँ

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

संगीता पुरी ने कहा…

जीवन में रिश्‍ते ऐसे ही बदल जाते हैं .. बहुत सुंदर रचना !!

गुड्डोदादी ने कहा…

कमलेश जी बहुत ही सुंदर भाव हैं
जो जीते थे मेरे लिए वो,अजनबी कैसे हो गए
बड़ी जातां से संजोये रिश्ते ,ये कैसे ऐसे हो गए
क्या लिक्खूँ
दर्द भरे गज़ल के पंक्ति पढ़ कर आंसूं आ गए
वो उधर गए हम इधर आ गए,
उसने अपना घर बसा लिया
मुस्कराहट आवश्य है होंठों पर
हम उनकी याद में रोते ही रह गए वो
खुशिओं से जीते हैं हम उनपर मरते ही रह गए