वहां शमां के जलने पर, हिफाजत नही होती।
उमंगों की अंगड़ाई तो उठती है मेरे मन में ,
पर अपने रिश्तों की मुझसे तिजारत नही होती।
अर्जिओं के ढेर लग गये हैं मुंसिफ के सामने,
पर किसी इक पर भी नजरे ''इनायत' नही होती।
पर करने को कोई भी हद , पार कर लें हम ,
'चुप' रहने का कतई मतलब 'शराफत' नही होती।
अपने हक़ की आवाज़ बुलंद करना मेरा फ़र्ज़ है ,
पर आपका का 'अनसुना' करना हिमाक़त नही होती।
''कमलेश''क्यों लोग सिर्फ़ पढ़ते हैं ,इन हाथों की लकीरों को,
चेहरे की झुर्रियां ,माथे की शिकन क्या? पढने की इबारत नही होती।। [कमलेश]
5 comments:
उम्दा प्रस्तुति |
बधाई भाई कमलेस जी ||
क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
बेहतरीन प्रस्तुति ,भावनाओं को स्वर देती सशक्त रचना ,शुभकामनाये ,बहुत बहुत साधुवाद
बहुत बढ़िया....
सुन्दर प्रस्तुति......
अनु
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