आखिर क्यूँ ,,,??
इस कदर को जिंदगी को क्यूँ उलझाते हैं लोग
हैं जहाँ मुश्किले वहीं क्यूँ दिल लगते हैं लोग ॥
अनसुलझी पहेली बन के रह गयी जिन्दगी ,
फिर क्यूँ नही इस पहेली को सुलझाते हैं लोग ,।
उलझी -उलझी जिन्दगी बन गयी है बोझ अगर
, हंस -हंस कर क्यूँ नहीं इसे उठाते हैं लोग ॥
कैसे टूटे ये भ्रम झूठी चाहत के शीशों का ,
शीशा टूटे ना टूटे खुद क्यूँ टूट जाते हैं लोग ॥
रखी है अमानत जमाने की, नीयत की धार पर
अमानत के बन निगाहबां , खुद ही लूट जाते हैं लोग ॥
''कमलेश''मजा आता है, उलझनों में उलझ कर ,
इसी बहाने गमों को भुलाने आते हैं लोग...
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3 comments:
इस कदर को जिंदगी को क्यूँ उलझाते हैं लोग
हैं जहाँ मुश्किले वहीं क्यूँ दिल लगते हैं लोग ॥
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ...
शायद यही इंसानी फितरत है !
इस कदर को जिंदगी को क्यूँ उलझाते हैं लोग
हैं जहाँ मुश्किले वहीं क्यूँ दिल लगते हैं लोग ॥
दिल है कि मानता नहीं
वाह बहुत सुन्दर रचना
वाह जी अंत में आपने खुद ही जवाब दे दिया.अब हम क्या कहे.
अच्छी गज़ल.
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