शुक्रवार, 13 अगस्त 2010 | By: कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹

आखिर क्यूँ ,,,??


इस कदर को जिंदगी को क्यूँ उलझाते हैं लोग
हैं जहाँ मुश्किले वहीं क्यूँ दिल लगते हैं लोग

अनसुलझी पहेली बन के रह गयी जिन्दगी ,
फिर क्यूँ नही इस पहेली को सुलझाते हैं लोग ,।

उलझी -उलझी जिन्दगी बन गयी है बोझ अगर
,
हंस -हंस कर क्यूँ नहीं इसे उठाते हैं लोग

कैसे टूटे ये भ्रम झूठी चाहत के शीशों का ,
शीशा टूटे ना टूटे खुद क्यूँ टूट जाते हैं लोग

रखी है अमानत जमाने की, नीयत की धार पर
अमानत के बन निगाहबां , खुद ही लूट जाते हैं लोग

''कमलेश''मजा आता है, उलझनों में उलझ कर ,
इसी बहाने गमों को भुलाने आते हैं लोग...

3 comments:

Coral ने कहा…

इस कदर को जिंदगी को क्यूँ उलझाते हैं लोग
हैं जहाँ मुश्किले वहीं क्यूँ दिल लगते हैं लोग ॥

बहुत सुन्दर लिखा है आपने ...
शायद यही इंसानी फितरत है !

M VERMA ने कहा…

इस कदर को जिंदगी को क्यूँ उलझाते हैं लोग
हैं जहाँ मुश्किले वहीं क्यूँ दिल लगते हैं लोग ॥

दिल है कि मानता नहीं
वाह बहुत सुन्दर रचना

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

वाह जी अंत में आपने खुद ही जवाब दे दिया.अब हम क्या कहे.
अच्छी गज़ल.