क्यूँ नही लगता ये..!!!
क्यूँ नही लगता ये जहाँ मेरा है ,
उम्मीद नहीं दिखती बस उदासियों का घेरा है ।
रिश्तों नातों में क्या ?है , वो कशिश बाकी !
हक जता के कहें कोई ,मेरा है बस मेरा है ,।
धुंधली हुई जाती हैं ,उजालों की परछाई ,
ख़ुद उजालों के घर ,घना अँधेरा है ,।
जहाँ जिन्दगी खिल -खिलाती थी, ख़ुद जिन्दगी से ,
उस जिन्दगी के घर , बे -वक्त मौत का डेरा है ।
''कमलेश ''न कर नजर इस और तिरछी ,
उधर मेरे हमदर्द ,दोस्तों का बसेरा है ॥
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2 comments:
बढिया रचना है।बधाई।
हाँ जिन्दगी खिल -खिलाती थी, ख़ुद जिन्दगी से ,
उस जिन्दगी के घर , बे -वक्त मौत का डेरा है ।
-वाह!! बहुत उम्दा!!
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