छोडो !अन्ना जी, इस देश को इसके हाल पर ,
हिन्दू-मुस्लिम का टीका, लगा दिया भाल पर ,
'भूखे रहने ' में भी लगाते हैं ,मजहब का चश्मा ,
सरे आम तमाचा है, इक जुटता के गाल पर ।
ये भ्रष्टाचार का नासूर ,कोई आज से नही ,
वो [बुखारी] खुद क्यूँ नही ,उलझे इस सवाल पर ।
संकुचित सोच खतरनाक है, भ्रष्टाचार से बड़ी ,
खुदा दे उनको अक्ल ! उनके उस ख्याल पर ।
अब दुनिया को दिखता है बस अन्ना का आइना ,
शायद गयी नही नजर इनकी ,भावनाओं के उबाल पर ,
अब उठो निकलो मजहबों की दीवारों से बाहर ,
'कमलेश'ना रखो भ्रष्टाचार को ,धर्म की दीवार पर ॥
1 comments:
आपने इस समसामयिक रचना में हकीकत बयान कर दी है।
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