जब-जब कभी व्यथित, ये संसार हुआ है ,
किसी न किसी सुआत्मा, का अवतार हुआ है ,
आज के सन्दर्भ में सबसे बड़ा 'भ्रष्टाचार 'दानव है ,
जिसके जुल्मों से त्रश्त , हर भारतीय मानव है ,
समन्दर के सीने से निकली ,ये लहर दूर तक जाएगी ,
जो भी आएगा इसकी राह में ,'कहाँ' बहा ले जाएगी ,
करो प्रसस्त मार्ग इसका ,उठा लो अपने पत्थर 'रोड़े ,
जन-वेग निहित है अंतर में ,न समझो इनको थोड़े ,
जनहित को कर दर किनार ,नही सम्भव राज चले ,
ज्यादा दिन न पहले चला किसी का, ना आज चले ,
'कमलेश' समझ है सब उनको, ये जनता क्या कहती है ?
पर उनको सदा ये लगा ,ये तो ऐसे ही कहती रहती है ,..
3 comments:
बहुत सुन्दर और प्रेरणादायक कविता रची है आपने!
शुभकामनाएँ!
जनहित को कर दर किनार ,नही सम्भव राज चले
ज्यादा दिन न पहले चला किसी का, ना आज चले ,
-बिल्कुल सही...समय आ गया है.
बशुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
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