हर तरफ से बस एक ही शोर है।
संविधान है खतरे में वन्समोर है।
अराजकता की धुंध दिख रही है कहीं!
या सिर्फ़ हंगामा कुछ और है।
सेंकने को अपनी राजनीतिक रोटियां,
या जनता के दर्द का शोर है।
है अगर बेचैनी तो खोल लो आँखे
अपने ही हैं, नहीं कोई और है।
ज्यादा दिन नहीं ढोते बोझ आजकल,
क्योंकि नई सदी में बदलाव का दौर है।
अगर धुंआ है तो ज़रूर कहीं आग होगी,
पता करने की नीयत शायद कमज़ोर है।
कमलेश'पहचानों धरातल की हक़ीक़त को,
कल होगी धरा यही ,पर तल कोई और है।।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-06-2018) को "शिक्षा का अधिकार" (चर्चा अंक-2995) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सपने हैं ... सपनो का क्या - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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