- भाव विह्वल सजल नैनो में, अवसाद भरा ,
- कांपती है आत्मा थर्राती है नभ-धरा ।
- कैसी अनहोनी घटित हुई ,है जीवन में ,
- मात्र पात के स्पंदन से भी है ,ये!मन डरा ,
- सदियों की बातें करता रहा मै सदा ,
- सब कुछ विलुप्त हो गया ,
- बस पलक झपकी थी जरा ,
- क्यों नहीं भाता कोई आश्वासन मन को ,
- अब सम्वेदना का स्वर भी लगता है खुरदरा ,
- काश !पढ़ पाते उस के लिप्यांतर को कभी ,
- तो आज न होता इतना खुद का मन भरा ,
- अब भी वक्त है सोच ले ये नादाँ ''कमलेश ''
- बस नाम का करले ...सौदा इकदम खरा-खरा ॥
मन का दर्द ...???
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6 comments:
आओ अवसाद छोड़ो,कुछ उल्लास की बातें करें
एक दी्प जलाएं प्रीत का,उजास दिन रातें करें
कमलेश जी,
अब एक गीत कविता संयोग या श्रृंगार हो जाए
तो आनंद आए।:)
मन का दर्द बहुत है गहरा
इंसान कितन है डरा-डरा
बहुत बेहतरीन कमलेश भाई..ललित भाई के साथ साथ हम भी अपनी मांग रखते हैं. :)
बहुत सुंदर
bahut dard chhipa he is dil me
bahut khub
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
प्रभावशाली अभिव्यक्ति के साथ.... बहुत सुंदर रचना....
बहुत ही सुन्दर रचना है ! मन को मोह लिया ! बधाई !
सदियों की बातें करता रहा मै सदा ,
सब कुछ विलुप्त हो गया,बस पलक झपकी थी जरा ,
वाह ! क्या बात कह दी आपने !
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