जिन्दगी क्यों बनी,दुश्मन जिन्दगी की ,
उसी ने दी बददुवा , जिसकी बंदगी की ।
काश ; समझ पाते फितरत उसकी ,
लिख लेते इबारत चेहरे पर, न पसंदगी की ।
था अकेला तो भी खुश था ,
किसी ने दे दी कसम, पूरी जिंदगी की ।
जीते जी मर गये ''कमलेश '' हम तभी ,
जब निकली कातिल जिन्दगी, ख़ुद जिन्दगी की ॥
2 comments:
बढ़िया है, बधाई.
अरे वाह, आपने जिंदगी को बहुत सुंदर ढंग से बयां किया है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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