मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012 | By: कमलेश वर्मा 'कमलेश'🌹

मैं हार गया -मैं हार गया .......

कुछ रिश्तों को बचाने की खातिर, मैं  खुद को भी मार  गया ,
पर उनकी  खोटी नीयतों के आगे- मैं हार गया -मैं हार  गया .......

अपने  कर्मों को पवित्र मान , फिर ''कहना चादर मैली है ''
जिसने समझा उनका अतीत, वो समझ सारा ' सार गया .....मैं .

द्वय  मुख वाले सर्पों का उपचार ,तो हो सकता है इस दुनिया में ,
पर उसकी औषधि असम्भव है ,जहाँ  किया अपनों का वार  गया ...मै ......

इतना विद्वेष दिलों में है ,तो उपर से क्यों हंसते हो .....
जब अहसास हुआ 'विष' को भी ,उसको ये सदमा मार  गया ....मैं ....

वक्त हमेशा इस जीवन में नही, इक जैसा  किसी का गुजरता है ,
वक्त ने नवाज़ा था  गुलशन को ,वक्त से गुलशन हो  'खार 'गया ...मैं ....

'कमलेश' क्यों रंग बदलते हैं रिश्तों के ,क्या मौसम की तब्दीली है ,
गयी गर्मी उन रिश्तों की  ,साथ ही मिटा सब प्यार गया ...मैं हार गया ...मैं ..........गया।



2 comments:

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

कभी कभी सब कुछ हारने में भी जीत का आगाज़ छिपा होता है ||

मन्टू कुमार ने कहा…

Har rang se milkar hi zindagi sunhari dikhti hai...
Bahut khub...

Sadar